RAXAUL: Indian Railway को देश का लाइफ लाइन कहा जाता है। लेकिन देश की ये लाइफ लाइन बनी रेल सेवा भारत-नेपाल सीमावर्ती क्षेत्र के यात्रियों के लिए ये सुविधा ढाक के तीन पात की तरह है। यहाँ ट्रेन से यात्रा करना यात्रियों के लिए मजबूरी हो गई और रेलवे के लिए ये सेवा गैर जरूरी। तभी तो घंटों इंतज़ार के बाद भी ना रेलवे अधिकारियों के कान पर जू रेंग रहा ना कोई सिस्टम बदलने की चर्चा है। सवाल ये है कि क्या अधिकारियों के साठ-गांठ से यहाँ बड़ा खेल चल रहा है।
दरअसल भारत-नेपाल सीमावर्ती क्षेत्र के लिए रक्सौल बड़ा बाजार है। यहाँ खरीदारी करने के लिए सीतामढ़ी जिले से लेकर पश्चिमी चंपारण के नरकटियागज तक के यात्री आते हैं। लेकिन जब से ब्रॉडगेज की सुविधा शुरू हुई है यहाँ ना यात्रियों की कोई सुध लेने वाला है ना रेलवे की सुविधा की। वैसे ही इस रूट में लोकल यात्रियों के लिए तीन ट्रेन है जिससे यात्रा करने के लिए यात्रियों को पूरे दिन इंतज़ार करना पड़ता है। इस उम्मीद के साथ की ट्रेन आयेगी, क्योंकि इसकी जानकारी ना रेलवे का पूछताछ कार्यालय देता ना कोई अधिकारी। जानकारी देने के लिए स्टेशन पर लगे बोर्ड भी गलत ही जानकारी देते हैं।
अब ये भी समझिये। नरकटियागंज से रक्सौल आने के लिए यात्रियों को वैसे तो वाया बेतिया- सुगौली के रास्ते आने की सुविधा है। लेकिन गोखुला, सिकटा, मर्जदवा, भेलवा से रक्सौल आने के लिए ट्रेन के बाद प्राइवेट गाड़ी ही साधन है। जिसके लिए भारी कीमत चुकानी पड़ती है। अगर सिकटा से रक्सौल आना हो तो एक यात्री को 70-80 रुपये देना पड़ता है वही भेलाही से रक्सौल आने के लिए ऑटो रिक्सा या टेम्पू को 30 रुपये देना पड़ता है जबकि 5 रुपये में ट्रेन की यात्रा होती है। ऐसे में कम दाम में यात्रा करने के लिए लोगों को समय के रूप में लोगों को भारी कीमत चुकानी पड़ती है। कामो बेस ऐसी ही स्थिति अदापुर, सीतामढी रूट में भी यहीं स्थिति है ।
रक्सौल में रेलवे अधिकारियों का बड़ा खेल जारी?
सवाल ये है कि क्या यहाँ के रेलवे कर्मचारी या अधिकारी यात्रियों को सस्ती सुविधा नहीं देना चाहते है, या ये सब किसी बड़े खेल की साजिश है। इसको लेकर स्टेशन पर बैठे कई यात्री कहते हैं कि रेलवे के कर्मचारी लोकल वाहनों से पैसे वसूलते हैं और ट्रेन को डिटेन कर देते हैं जिससे अधिकतर यात्री चले जाते हैं ला। बदले में वाहन स्टेंड के कर्मचारी वाहनों से वसूली कर अधिकारियों तक राशि पहुँचा देते है। हालांकि इसमें सच्चाई कितनी है ये तो जांच के बाद पता चलेगा। पर सवाल ये है कि ट्रेन सप्ताह में 1-2 दिन देरी से जा सकती है लेकिन रोज- रोज देरी से जाने का कारण क्या है? आखिर इन रूटों में निर्धारित ट्रेनों की संख्या में बदलाव या ट्रेन रूट में चलने वाली ट्रेनों को क्यों और कैसे रद्द किया जाता है इसकी जानकारी नहीं मिलना भी कई सवाल पैदा कर रहा है।