रक्सौल: ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता पर आयोजित तिरंगा यात्रा कार्यक्रम में सांसद संजय जयसवाल के आगमन पर एक बार फिर वही पुराना दृश्य दोहराया गया। दर्जनों तिरंगे, नारों की गूंज, भीड़ का हुजूम और नेताओं के सामने ‘उत्पन्न’ होते वो चेहरे जो हर आगमन पर ‘विशेष कार्यकर्ता’ बन जाते हैं। कैमरे की लेंस में जगह पाने की होड़ में ये लोग आगे-आगे रहते हैं।
ऐसे अवसरों पर अक्सर कुछ खास चेहरे हर तस्वीर में सबसे आगे होते हैं। उनका उद्देश्य सिर्फ एक तस्वीर में नेता के साथ आ जाना। जब तक कैमरे क्लिक करता है, वे आगे बने रहते हैं। जैसे ही तस्वीर खिंचती है, वे धीरे से वहां से निकल जाते हैं, और अगली बार किसी नेता के आगमन तक ‘गायब’ रहते हैं।
यह प्रवृत्ति सिर्फ रक्सौल की नहीं है। छोटे-बड़े हर शहर में राजनीतिक आयोजनों में यह एक आम दृश्य बन चुका है। तस्वीरों में सेवा भाव दिखाने वाले ये चेहरे, आम जनता के दुख-दर्द, समस्याएं या ज़मीनी मुद्दों पर शायद ही कभी नज़र आते हैं। जब कोई गरीब थाने या किसी कार्यालय के चक्कर लगाता है, तब ये ‘सेवा भावी’ चेहरे दूर-दूर तक नहीं दिखते।
तस्वीरें खिंचवाने के बाद वही तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालकर यह जताया जाता है कि ‘हम नेता के खास हैं’। यह एक ‘वर्चुअल उपस्थिति’ होती है, जो ज़मीनी हकीकत से बिलकुल उलट होती है। पोस्ट के साथ कैप्शन होता है – माननीय सांसद जी के साथ…” या “समाज सेवा में निरंतर…” लेकिन हकीकत यह है कि वही लोग ज़मीनी मुद्दों से सबसे ज़्यादा कटे होते है।
जनता अब इस दिखावे को समझ चुकी है। कई स्थानीय व्यापारी और आम नागरिक यह कहते सुने जाते हैं। अरे, देखो-फोटो खिंचवा रहे हैं, फिर अगले आगमन तक गायब हो जाएंगे। यह प्रतिक्रिया आम हो चली है और नेताओं से दूरी बढ़ने का भी यही एक बड़ा कारण है।
राजनीति में सहभागिता जरूरी है, परंतु यदि वह केवल कैमरे तक सीमित हो जाए तो यह लोकतंत्र का उपहास बन जाता है। वास्तविक कार्यकर्ता वह है जो जनता के बीच, हर परिस्थिति में खड़ा रहे न कि केवल तस्वीरों में दिखने वाला ‘शोपीस’।